‘मंदिर उत्सव के निमंत्रण में जाति लिखने की जरूरत नहीं’, मद्रास हाई कोर्ट ने मंदिर कमेटी को दिया यह आदेश

मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै खंडपीठ ने हाल ही में एक मंदिर उत्सव के निमंत्रण से एक एससी समुदाय को इस आधार पर बाहर करने की आलोचना की कि उन्होंने इस आयोजन के लिए कोई पैसा दान नहीं किया था।

कोर्ट ने अधिकारियों को भविष्य में संबंधित मंदिर के निमंत्रणों में किसी भी जाति के नाम का उल्लेख नहीं करने का आदेश दिया।

न्यायमूर्ति एमएस रमेश और न्यायमूर्ति एडी मारिया क्लेट की पीठ ने नाडुविकोट्टई आदि द्रविड़ कल्याण संघ के अध्यक्ष केपी सेल्वराज द्वारा दायर याचिका पर आदेश पारित किया।

इस आदेश में तंजावुर के पट्टुकोट्टई नादियाम्मन मंदिर में वार्षिक उत्सव के निमंत्रण में ‘ऊरार'(ग्रामीणों का जिक्र करते हुए) के बजाय ‘आदि द्रविड़र’ छापने का निर्देश देने की मांग की गई थी।

आदि द्रविड़ समुदाय का नहीं था उल्लेख

मंदिर के कार्यकारी अधिकारी ने निमंत्रण में उनकी जाति के नाम के साथ विभिन्न प्रायोजकों के नाम शामिल किए थे, लेकिन आदि द्रविड़ समुदाय का उल्लेख नहीं किया था, इसके बजाय उन्हें केवल ‘ऊरार’ के रूप में संबोधित किया गया था और कहा था कि उन्होंने कोई योगदान नहीं दिया है।

बता दें, 2009 में भी उसी मंदिर में एक समान विवाद उत्पन्न हुआ था, जिसके लिए एक शांति समिति की बैठक आयोजित की गई थी। न्यायाधीशों ने उस तरीके की आलोचना की जिसमें दलितों को विशिष्ट मान्यता से वंचित करते हुए ‘ऊरार’ के सामान्य शब्द के तहत शामिल किया गया है।

न्यायाधीशों ने की आलोचना
न्यायाधीशों ने कहा, यह अजीब है कि कार्यकारी अधिकारी एक सरकारी अधिकारी होते हुए भी इसका समर्थन कर रहे हैं। जस्टिस क्लेट ने कहा, “यह चयनात्मक दृश्यता प्रणालीगत असमानता को मजबूत करती है, जिससे दलित सामाजिक मूल्य, गोपनीयता और समाज में सार्थक भागीदारी दोनों से वंचित हो जाते हैं।”

न्यायाधीश ने कहा, “इस विरोधाभास को यह सुनिश्चित करके सुलझाना चाहिए कि दलितों को अपनी जाति की पहचान घोषित करने के लिए मजबूर किए बिना पहचाने जाने का अधिकार है, इस प्रकार से उनकी गरिमा, गोपनीयता और सार्वजनिक धार्मिक मामलों में समान भागीदारी को संतुलित किया जा सकता है”।

न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि हालांकि अधिकारी यह तर्क दे सकते हैं कि अनुसूचित जाति के व्यक्तियों पर देवता की पूजा करने या उत्सव में भाग लेने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, भागीदारी सार्थक और ठोस होनी चाहिए, न कि केवल प्रतीकात्मक या सांकेतिक।

‘प्रणालीगत असमानता को मजबूत करना’
न्यायाधीश एडी मारिया क्लेटे ने कहा, “यह चयनात्मक दृश्यता प्रणालीगत असमानता को मजबूत करती है, जिससे दलितों को सामाजिक मूल्य, गोपनीयता और समाज में सार्थक भागीदारी दोनों से वंचित किया जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *